शांतिदेवी आज बहुत खुश नज़र आ रहीं थी, मनोहरलाल जी ने जब उनकी इस ख़ुशी का राज़ पूछा तो कहने लगीं की `आज मेरा बेटा लन्दन से वापस आ रहा है `! मनोहरलाल जी चोंके और कहने लगे - `क्यों भई,कोई फ़ोन आया है क्या?`शांतिदेवी मुस्कराईं और कहने लगीं -`आज मेरे बेटे को गए पूरा एक साल बीत गया मगर वो नहीं आया ,परन्तु आज अपनी माँ का जन्मदिन वो नहीं भूल पायेगा!`यह सुन कर मनोहरलाल जी बोले-`लगता है ६५ साल की उम्र में तुम साथिया गई हो!सचमुच शांतिदेवी आज साथिया गईं थी! वह पुरे दिन इंतज़ार करती रहीं और उनका बेटा नहीं आया !
शांतिदेवी जैसे आज कितने ही बुजुर्ग दंपत्ति हैंजो उम्मीदों के साए में अपनी साड़ी ज़िन्दगी बिता देते हैं , इस उम्मीद में की जिन बच्चों को उन्होंने उंगली पकड़कर चलना सिखाया था आज वही बच्चे उनके लडखडाते क़दमों के लिए बैसाखी का सहारा बनेंगे ! एक वक्त ऐसा भी आता है जब शांतिदेवी की तरह उनके सपनो का संसार टूट जाता है और वक्त के साथ-2 उनकी पथरीली आँखों का इंतज़ार ढीला पड़ जाता है ,और ज़िन्दगी पर उनकी कमजोर सी पकड़ हमेशा के लिए खामोश हो जाती है ! आखिर क्यों होता है ऐसा की जब बुढ़ापे में बचपन फिर लौट कर आता है तो सेवा करने वाले हाथ नदारद होते हैं? वास्तव में तथ्य तो यह है की उम्र के ५० वे पड़ाव को पार करते करते जब ज़िन्दगी बूदी होने लगती है तब वे अपने ही परिवार पर बोझ बनने लगती है, और तब शुरुआत होती है ज़िन्दगी के अकेलेपन की!
यहाँ सवाल यह नहीं है की बच्चे पढाई करने परदेश ना जाएँ अपितु ये हालात तो एक ऐसी दिशा पर उंगली उठाते हैं जो पढने के बाद अपनों को अपनों से ही दूर कर देती है , और बच्चों को इतना स्वार्थी बना देती है की वो इस पूरी प्रक्रिया में अपने माँ बाप के योगदान को नाकारा कर देतें हैं वास्तव में आज जाने अनजाने हम स्वयं ही एक ऐसे समाज का निर्माण कर रहे हैं जिसमे बुजुर्गों की अहमियत ख़तम सी होती प्रतीत हो रही है ! इस समाज की युवा पीड़ी में ऐसे ऐसे विचार पनपते जा रहे हैं जो माँ बाप के दकियानूसी विचारों को अपनी आज़ादी में खलल मान रहे हैं !यही कारन है की आज इन वृद्ध माँ बाप की ज़िन्दगी सुनी होती जा रही है, और ये हर संभव अभावों का जीवन जी रहे हैं ! इनका वृद्ध संसार एक छोटे से दायरे में सिमट कर रह गया है! अधिकतर माँ बाप तो ऐसे हैं जिनका इंतज़ार कभी ख़तम ही नहीं हुआ , इनके बच्चे पड़ने विदेश तो गए पर पढने के उपरान्त वहीँ बस गए और कभी लौट कर नहीं आये! ऐसे माँ बाप नौकरों के सहारे जीवन काट रहे हैं, परन्तु नौकर कब साथ देंगे ! एक दिन मौका पा कर वे भी सब कुछ लूट कर फरार हो जायेंगे !दिल्ली मे किये गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ ४० प्रतिशत वृद्ध माँ बाप , नौकरों के सहारे जीवन काट रहे हैं और २० प्रतिशत स्थान उन बुजुर्गों का है जो अकेले रह कर अपनी तकलीफों को झेल रहे हैं! रही सही कसार उन बच्चों ने पूरी कर राखी है जो अपने माँ बाप के साथ तो रहते हैं पर पास नहीं !
आज का बुजुर्ग वर्ग अपनों की अपनों के प्रति उपेक्षा को बखूबी समझ रहा है ! इस उपेक्षा को देखते हुए शायद एक बुजुर्ग अपने बच्चों क प्रति यही सोच रखता है....................
बंद कमरे में मुझे घुटन सी महसूस होती है,
हर वक्त दिल में मुझे चुभन सी महसूस होती है!
चलना सिखाया उंगली पकड़कर जिन्हें,
दूर अपने से देख कर उन्हें आज मुझे ,
जलन सी महसूस होती है !
करते हैं कभी कभी पास आने का दिखावा भी वो ,
पर देख कर ये दिखावा उनका मुझे तपन सी महसूस होती है!
ओढा देते हैं यूँ तो कभी कभी वो चादर भी आकर,
पर वो चादर भी मुझे कफ़न सी महसूस होती है !
वास्तव में यह एक कटु सत्य है की आज का युवा वर्ग अपने बुजुर्ग माँ बाप के प्रति उदासीन तो है ही साथ ही वह उनकी ज़िन्दगी को भी अपना गुलाम बना लेने पर उतारू नज़र आ रहा है! बदती उम्र के साथ साथ यही अकेलेपन का दर वृद्ध माँ बाप को भीतर तक झकझोर कर रख देता है , और उन्हें एकान्तता के ऐसे धरातल पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ से उन्हें अकेलेपन और परेशानी से बाहर की दुनिया नज़र नहीं आती ! वह एक ऐसी स्तिथि में पहुँच जाते हैं जहाँ वे खुद को समाज से अलग थलग सा प्रतीत करने लगते हैं ! इन बच्चो को आज अपने माँ बाप के दकियानूसी विचार अपनी जीवनशैली में विष घोलते से प्रतीत हो रहे हैं! जिंदगी के आखिरी पढाव पर आज कितने ही बुजुर्ग मर कर जीने पर मजबूर हो गए हैं! उनकी आवाज़ इतनी थरथरा गई है की उन्हें भगवान् भी आज सुन नहीं पा रहा है !
एक ऐसी ही जिंदगी पर कटाक्ष करती ये पंक्तियाँ उन बुजुर्गों पर इशारा करती हैं जिनके मरने पर उनके अपनों ने वाहवाही लूटी :-
जिंदगी के आखिरी पढाव पर मैने उम्मीद की राह सी देखी थी!
थकती हुई उन बूढी आँखों में मैने एक अजीब कराह सी देखी थी!
एक आवाज़ जो सुनी ना गई , उसमे एक अनजानी आह सी देखी थी
चुपचाप देखती रही मैं उस मौत को मरते हुए
पर इस अनजाने गम में मैने उसके अपनों की वाह सी देखी थी !
मैं भी शायद उसी भीड़ का हिसा हूँ जो अपने मां-बाप की नसीहत को आज़ादी में खलल मानता है. और इन्ही वजहों ने घर से मुझे दूर किया था. लेख पढ़ा तो पहले खुद में झांका कि कहीं मैं भी ऐसा ही तो नहीं. जवाब आया कि बगावती हूँ बुरा नहीं.. :)
ReplyDeleteअच्छा लेख है. लिखते रहिये.